रामलीला मैदान में सोये हुए लोगों पर लाठी चार्ज और स्वामी रामदेव के साथ अमानवीय व्यवहार स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं पर कुठाराघात है. भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुयी राजनितिक पार्टियां भ्रष्टाचार की पोल खोले वाले अपने प्रतिपक्षियों के साथ ऐसा व्यवहार करें यह आश्चर्यजनक नहीं है. मगर यह निंदनीय है.
मगर बाबा रामदेव के विषय में भी विषय में कई बातें हैं जिन्हें बाबा और सत्याग्रह करने वाले सभी लोगों को समझनी जरूरी हैं.
अनशन और सत्याग्रह नैतिक शस्त्र हैं. उन्हें करने वाले के पीछे सत्य और नैतिकता का पूरा बल होना चाहिए. व्यक्तिगत विद्वेष की भावना नहीं होनी चाहिए. क्रोध नहीं होना चाहिए. वाचालता नहीं होनी चाहिए. सत्याग्रही को दुराग्रही भी नहीं होना चाहिए. सत्याग्रह नाटक भी नहीं है जहाँ दोनों पक्षों के बीच गुप्त समझौते हो जाएँ और ऊपर से सत्याग्रह का नाटक चलता रहे.
बाबा रामदेव की बातों से किसी के प्रति व्यक्तिगत विद्वेष की बू आ रही थी. दबाव में पत्र लिख देना और जनता से छुपा कर रखना एक सत्याग्रही के सत्यनिष्ठ और पारदर्शी आचरण का प्रमाण नहीं है. कैसा दबाव और कैसा भय? सत्याग्रही को तो प्राण का भी भय नहीं होता फिर किस भय से दबाव में सरकार को चिट्ठी लिखी गयी? सत्याग्रह स्थल से प्राण के भय से भागा क्यों गया?
जिस उद्देश्य से सत्याग्रह शुरू किया गया वह मूलतः उचित था. काले धन का राष्ट्रीयकरण होना ही चाहिए. इस सम्बन्ध में सरकार की ढुल मुल नीति से देश अच्छी तरह परिचित हो गया है और यह संदेह गहराता ही जा रहा है कि विदेशों में जो काला धन पड़ा हुआ है उसका सम्बन्ध कहीं ना कहीं राजनेताओं और अफसरों से जरूर है. मगर इस मुद्दे पर जो सत्याग्रह किया गया उसमें सत्याग्रह की भावना और स्वरुप में शुचिता की कमी दीखी. यह लगभग सभी सुधी लोग महसूस कर रहे हैं.
अभी देश में क्रान्ति की जरूरत है, अहिंसक क्रांति की. मगर इस क्रान्ति का बीड़ा उठा कर जो लोग आगे आ रहे हैं, उनके पास देश के विषय में एक समग्र जीवन दृष्टि की कमी दीख रही है. उनकी सोच क्या है यह ठीक से जानने के लिये उनका कोई साहित्य भी नहीं है. भारत जैसे विशाल बहुसांस्कृतिक और पुराने इतिहास वाले को एक देश को एक वास्तविक क्रान्ति के पथ पर चलाने के लिये न केवल भावनात्मक गंभीरता बल्कि वैचारिक गहराई और विस्तार की भी जरूरत होगी. गांधी, नेहरु, राजेन्द्र प्रसाद, लोहिया का साहित्य और उनका कर्तृत्व इस प्रकार की वस्तुस्थिति का प्रमाण है. वैयक्तिक और राष्ट्र जीवन के प्रत्येक पहलू पर गांधी ने सोचा और लिखा. केवल बोला नहीं. नेहरु के 'विश्व इतिहास की झलक' पर महान इतिहासकार टायनबी ने लिखा कि इतना बड़ा मानसिक फलक एक राजनीतिज्ञ का हो यह विश्वास नहीं होता. भारतीय इतिहास के प्रवाह को मोड़ने के पहले इस प्रवाह को, इसके उत्स को, इसकी दिशा को, समझने की जरूरत है. चिंतन और चिंतनपरक लेखन से विमुख आज के हमारे क्रियावादी और राजनेता अगर इस प्रवाह के थपेडों से घायल हो कर इतिहास के हाशिए पर चित हो जाएँ तो ताज्जुब नहीं.
एक लोकतंत्र में आमरण अनशन-परक सत्याग्रह अहिंसा का अंतिम अस्त्र है, ब्रह्मास्त्र है, और इसका अधिक प्रयोग अस्त्र की गरिमा और प्रभाव को कम कर देगा. लेकिन भ्रष्टाचार-निरोध के बहादुर योद्धा निराश न हों. यह एक छोटी हार है. बड़ा युद्ध हम जरूर जीतेंगे! भारतीय इतिहास की धारा मोड़ के कगार पर है. भारतीय इतिहास की कोख से ही और भी शक्तियां उठेंगी और इतिहास की दिशा को बदलेंगी.
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